निजी और सियासी
निजी और सियासी
तकरीबन 25 साल पहले ली गई मेरी मां सुकन्या और मेरी बेटी मीतो की इस तस्वीर (ऊपर) को देखते हुए मैं अपने एक्टिविज़्म के एक अलग ही दौर में पहुंच जाती हूं।
मेरे खयाल में यह तस्वीर 1985 में यानी सिख विरोधी दंगों के साल भर बाद नई दिल्ली के इंडिया गेट पर शांति और धर्मनिरपेक्षता के लिए निकाले गए एक जुलूस के मौके पर ली गई थी। इस मौके पर हम सभी ने सफेद पोशाक तय की थी और जैसा कि आप खुद देख सकते हैं मेरी मां और मीतो ने भी इस ड्रेस कोड का पूरी तरह पालन किया। मेरी मां ढोलक लिए बैठी हैं। वह जब भी हमारे साथ आती थीं तो ढोलक बजाती थीं और आंदोलन के गीत गाया करती थीं। वह आभा को भी सालों से जानती थीं और अपनी इन सरगर्मियों की मार्फत आंदोलन से जुड़ी दूसरी महिलाओं को भी जानने-पहचानने लगी थीं। इस जुलूस में तीन पीढि़यों की यह मौजूदगी एक खास निजी और सियासी संदर्भ की गवाह है।
इस कार्यक्रम के दौरान हमने अमन के गीत गाये थे। हम इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मासूम सिखों के कत्लेआम के खिलाफ अपने सामूहिक गुस्से और शोक का इज़हार कर रहे थे। इस कार्यक्रम में बहुत सारे लोग हमारे साथ आ जुड़े थे। बहुत सारे लोग और संगठन आने वाले कई साल तक दिल्ली में सिखों के पुनर्वास के लिए काम करते रहे। हममें से बहुत सारे लोग सांप्रदायिक सद्भाव और शांति बहाल करने के लिए नागरिक एकता मंच के साथ भी जुड़े हुए थे।
बहुत सारे कार्यकर्ताओं के बच्चे, पति/पत्नी और यहां तक कि घरेलू मज़दूर भी हमारे संघर्ष में शामिल थे। उन्होंने तरह-तरह से इन संघर्षों में मदद और हिस्सेदारी दी। कुछ कार्यकर्ताओं के बच्चों ने तो इसे अपना मकसद और काम भी बना लिया था। उदाहरण के लिए, कुमकुम संगारी का बेटा ध्रुव जो धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद की बहसों को सुनते हुए बड़ा हुआ था, आज एक सूफी गायक बन चुका है। मेरी बेटी मीतो ने एक एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवी के रूप में अपने कॅरियर की शुरुआत मानवाधिकारों और धर्मनिरपेक्षता पर काम करते हुए की थी। ललिता रामदास की बेटी सागरी ने एक पशु शल्यचिकित्सक की पढ़ाई की और आंध्र प्रदेश में पशु कल्याण तथा पशुपालन से लोगों को आजीविका अर्जित करने में मदद देने वाले एनजीओ की नींव डाली। यह फेहरिस्त मैं बहुत दूर तक खींच सकती हूं। गौरी चौधरी के ड्राइवर साहेब भी हमारे सारे धरने-प्रदर्शनों और गतिविधियों में अभिन्न भागीदार थे।
अगर घर एक्टिविज़्म की पाठशाला थे तो परिवार भी पीछे कैसे रहते
वो ऐसा ज़माना था जब हमारा एक्टिविज़्म फंडिंग से नहीं चलता था और लिहाज़ा इसके पीछे मदद का कोई बुनियादी ढांचा नहीं होता था। न तो हमारे पास चलाने के लिए कोई संगठन था और न ही उनको चलाने के लिए दफ्तर के तौर पर कोई जगह होती थी इसलिए हमारे समूहों की उच्चवर्गीय सदस्याएं ही काम के लिए जगह और साधन मुहैया कराती थीं (बेशक, इससे अपने तरह की एक सत्ता गतिकी और चिंताएं भी पैदा हुईं)। हम ऐसी साथियों के ही घरों में मिलते और वहीं से अपने समूह का काम चलाते थे। मसलन, सहेली का कामकाज गौरी के घर से चलता था, जागोरी का काम आभा के घर से। रेणुका मिश्रा, बुची राव, लॉली रामदास और मेरा घर मीटिंगों, नुक्कड़ नाटकों की रिहर्सल आदि के अड्डे बने हुए थे। निजी और सार्वजनिक को बांटने वाली लकीरें धुंधली हो गई थीं हालांकि यह एक मजबूरी की बदौलत था।
चूंकि हमारा एक्टिविज़्म हमारी साथियों के घरों से ही चल रहा था इसलिए हममें से बहुतों के परिवार वाले भी हमारे एक्टिविज़्म में हमसफर बनते चले गए। हमारे लिए एक्टिविज़्म हमारी निजी जि़ंदगियों के बाहर नहीं बल्कि उनका हिस्सा था। एक ज़माना था जब 18 महीने की मीतो अपने पिता के कंधे पर बैठ कर बलात्कार विरोधी आंदोलन में हिस्सा ले रही थी और उसके हाथों में एक प्ले कार्ड था जिस पर लिखा था बलात्कार मिटाओ, मेरा भविष्य बचाओ!
असल में हमारा ज़्यादातर समाजीकरण अपनी साथी कार्यकर्ताओं के साथ ही हो रहा था। अगर जागोरी का काम दफ्तर के घंटों के बाद या परिवार के समय के दौरान भी चलता था तो ज़ाहिर है बच्चे भी आसपास ही रहते थे। हमारे यार-दोस्त ही हमारे बच्चों की मौसी और मामा हो जाते थे। हममें से कुछ के घरों पर दूसरे शहरों और देशों की नारीवादियों को भी ठहराया जाता था। उस ज़माने में हमारे लिए होटलों में ठहरना या आईआईसी या आईएचसी जैसे आलीशान होटलों अथवा सम्मेलन स्थलों पर मीटिंग बुलाना बड़ी बात थी। न तो हमारे पास अनुदान होते थे और न ही हमें महंगे होटलों में सम्मेलन या मीटिंगें करना सही लगता था (अच्छी-खासी फंडिंग वाले एनजीओ संगठनों द्वारा अपनी मीटिंगों और प्रवास के लिए आलीशान होटलों के इस्तेमाल का सिलसिला तो नब्बे के दशक के मध्य और आखिरी सालों से शुरू हुआ था। मेरा खयाल है कि इससे एनजीओ संस्कृति को नुकसान ही पहुंचा है। खुशकिस्मती की बात है कि कुछ गैर-सरकारी संगठन अभी भी खुद को इस तरह की आदतों और हरकतों से बचाने की कोशिश कर रहे हैं। जागोरी ने तो होटल संस्कृति के विकल्प के तौर पर हिमाचल में एक प्रशिक्षण/मीटिंग स्थल शुरू करने की योजना को भी अमली जामा पहनाया है)।
ये तसवीरें लोदी गार्डन में जागोरी की एक पिकनिक के दौरान लि गई हैं। मेरे खयाल में यह ज़रूर इतवार का ही दिन रहा होगा। लिहाज़ा मेरी बेटी मीतो भी मेरे साथ पिकनिक में शामिल है। मेरे पिता के गुज़रने के बाद मेरी मां भी मेरे पास रहा करती थी और लिहाज़ा वे भी उसदिन हमारे साथ मौजूद थीं। यह उसी किस्म की पिकनिक है जिसे आजकल के संगठन रिट्रीट के नाम से पुकारने लगे हैं। ऐसी पिकनिकों में हम एक दूसरे से मिलते-जुलते, रिश्ते कायम करते, एक दूसरे के परिवारों को जानते-बूझते थे। हम रस्साकशी और सतोलिया जैसे खेल ख्ेालते और नाचते-गाते थे। खाने-पीने का सामान हम अपने घरों से लेकर आते थे। ये रिट्रीट एक तरह से निखर्ची ही हुआ करती थीं क्योंकि सब मिलकर उसकी लागत उठाते थे।
एक बार जब मैं नुक्कड़ नाटकों पर आयोजित एक आवासीय कार्यशाला के लिए उतर प्रदेश गई तो मीतो भी मेरे साथ थी। उसने ज़रूर ही कार्यशाला के दौरान हमें गपशप करते और हंसते-गाते देखा होगा। यह सब देखकर थोड़ा उलझन के साथ उसने मुझसे पूछा, ‘‘मां, तुम लोग काम कब शुरू करोगे?’’ ज़ाहिर है हमारे लिए ‘‘काम करने’’ और ‘‘काम न करने’’ के बीच कोई फर्क नहीं था।