स्मार्ट सिटी में प्रतिरोध की जगह कहां है?

शोधकर्ता

डाॅ. कल्पना विश्वनाथ पिछले 25 साल से भी ज्यादा समय से जागोरी की हमसफर रही हैं। उन्होंने यूएन वीमेन की साझेदारी में जागोरी द्वारा चलाए गए सेफ डेल्ही फाॅर वीमेन (महिलाओं के लिए सुरक्षित दिल्ली) अभियान का नेतृत्व किया। इसके अलावा उन्होंने महिलाओं के लिए सुरक्षा आॅडिट व सर्वेक्षणों सहित विभिन्न प्रकार के शोध कार्यक्रमों का नेतृत्व किया है और महत्वपूर्ण साझीदारों के साथ सहयोग विकसित करने में एक अहम भूमिका अदा की है। वह समुदायों व महिलाओं की सुरक्षा के लिए तैयार किए गए सेफ्टी पिन मोबाइल ऐप की सहसंस्थापक हैं। वह दुनिया की कई परियोजनाओं में जेंडर तथा शहरी सुरक्षा के मुद्दों का समावेश करने के लिए यूएन वीमेन तथा यूएन हेबीटेट के साथ एक कंसल्टेंट के रूप में भी काम कर चुकी हैं। इसके अलावा उन्होंने शहरी सार्वजनिक परिधियों में महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा से संबंधित विभिन्न शोध अध्ययनों का नेतृत्व किया है। साथ ही उन्होंने कम्बोडिया, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, केरल, मुंबई और कोलकाता में महिलाओं के लिए सुरक्षित शहर अभियानों में तकनीकी सहायता भी दी है।
वह इंटरनैशनल सेंटर फाॅर दि प्रिवेंशन आॅफ क्राइम (आईसीपीसी) की बोर्ड सदस्य हैं और इंटरनैशनल एडवाइजरी कमेटी आॅफ वीमेन इन सिटीज इंटरनैशनल की अध्यक्ष हैं। वह यूएन हेबीटेट द्वारा गठित एडवाइजरी कमेटी आॅफ दि सैकेंड स्टेट आॅफ एशियन सिटीज और यूएन एस्केप की सदस्य हैं। वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे लगातार लिखती रही हैं और बिल्डिंग जेंडर इन्क्लुसिव सिटीज़ पुस्तक की सहसंपादक हैं।

 

स्मार्ट सिटी में प्रतिरोध की जगह कहां है?


प्रतिरोध के लिए सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करना लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक बहुत महत्वपूर्ण अधिकार होता है। महिला आंदोलन लगातार रचनात्मक ढंग से सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करते हुए हिंसा, महिला अधिकारों तथा महिलाओं की जिंदगियों के बारे में विविध संदेशों का प्रसार करता रहा है। मैं नब्बे के दशक के शुरुआती सालों से दिल्ली में हुए प्रतिरोध कार्यक्रमों में सक्रिय रही हूं। इस दौरान हमने रामलीला मैदान, दिल्ली गेट, आईटीओ, इंडिया गेट तथा असंख्य अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर आम लोगों तक अपने संदेश पहुंचाने के लिए नारे लगाए हैं, जुलूस निकाले हैं और धरने दिए हैं।


मगर, बीते सालों में मैंने देखा है कि प्रतिरोध का यह दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। जहां एक जमाने में हम पूरे शहर में कहीं भी अपनी आवाज उठा सकते थे वहीं आज सारे प्रतिरोध शहर के सिर्फ एक छोटे से हिस्से में ही सीमित होकर रह गए हैं। 16 दिसंबर 2012 को घटी बलात्कार की घटना के बाद लोग केवल कुछ समय तक ही शहर की विभिन्न सड़कों व स्थानों पर अपना विरोध दर्ज करा पाए थे। इंडिया गेट पर इस प्रतिरोध में शामिल महिलाओं और पुरुषों की ये तस्वीरें दुनिया भर में फैल गई थीं जिनमें इस प्रतिरोध को कुचलने और रोकने के लिए पुलिस द्वारा की गई हिंसा की छवियां भी शामिल थीं। यह आजादी सिर्फ कुछ समय तक ही कायम रह पायी और अब फिर से सारे प्रतिरोध केवल जंतर-मंतर तक सिमट तक रह गए हैं। यह जगह शहर के मध्य में तो है मगर बहुत ही छोटी और सीमित सी जगह है।


वो सन 2003 में नवंबर की एक सर्द शाम थी (महिला विरोधी हिंसा के खिलाफ 16 दिवसीय प्रतिरोध के दौरान) जब हमने मोमबत्तियां लेकर वीमेन इन ब्लैक प्रतिरोध का आयोजन किया था। इस अवसर पर हम सबने काले कपड़े पहने थे मगर हमारे बैनरों पर शांति और अहिंसा के हक में बड़े खूबसूरत और रंगीन संदेश लिखे हुए थे।


भारत और दुनिया भर की औरतों के लिए हिंसामुक्त जीवन के अधिकार की मांग करते हुए हमने इंडिया गेट पर जुलूस निकाला था। युद्ध के शहीद ”नायकों“ की याद में बनाए गए इस स्मारक के सामने हम ऐसी ”नायिकाओं“ की सूची लेकर पहुंचे थे जो हिंसा, खासतौर से अपने जीवनसाथियों की हिंसा के कारण असमय मौत की गोद में चली गई थीं। हमारी तख्तियों पर उन औरतों के नाम थे। हमें उस विरोध कार्यक्रम का ख्याल ऐसी हिंसा के कारण मारी गई महिलाओं को याद करने और उनको एक नाम देने के लिए दुनिया के दूसरे भागों में जलाए जा रहे इसी तरह के कार्यक्रमों को देखकर आया था।


जब हम इंडिया गेट पर पहुंचे तो अभी दिन पूरी तरह ढला नहीं था। अभी काफी उजाला था। हमने इंडिया गेट की छतरी के चारों ओर एक घेरा बनाया और बैनर लेकर खड़े हो गए जिन पर ”हिंसा मुक्त दुनिया संभव है“ और ”जब कुछ आदमी हिंसा करते हैं तो बाकी आदमी खामोश क्यों रहते हैं“ जैसे संदेश लिखे हुए थे। इस तरह के संदेशों को देखकर स्वाभाविक रूप से लोगों का ध्यान हमारी तरफ आकर्षित हुआ। बहुत सारे लोगों ने ठहरकर हमारे संदेश पढ़े और हमसे इस प्रतिरोध के बारे में तरह-तरह के सवाल पूछे। यह लोगों के साथ घुलने-मिलने और उनसे बात करने का अच्छा अवसर था। दक्षिण भारत के कुछ सैलानी भी हमारे पास आए। उन्होंने हमसे पूछा कि हम क्यों विरोध कर रहे हैं। इसके बाद वे भी हमारे साथ बैनर थामकर खड़े हो गए। उन्होंने हमारे साथ अपनी तस्वीरें लीं। यह दिल्ली की उनकी यादों का एक हिस्सा था।
जैसे-जैसे अंधेरा घिरने लगा, हम महिलाओं के लिए हिंसामुक्त जीवन के संदेशों का प्रसार करते और नारे लगाते हुए इंडिया गेट की ओर बढ़ने लगे। जब शाम पूरी तरह ढल गई तो हमने हिंसा के कारण मारी गई औरतों की जिंदगियों को याद करने के लिए प्रतीक के तौर पर अपनी मोमबत्तियां जला लीं। मोमबत्तियां हमेशा ही शांति का अहसास देती हैं और किसी भी प्रतिरोध की एक बहुत सजीव छवि प्रस्तुत करती हैं।
इंडिया गेट पर अपनी दावेदारी पेश करना हम सभी के लिए बहुत शक्तिशाली और ताकत देने वाला अहसास था। दिल्ली में यह ऐसे कुछ स्थानों में से एक है जहां महिलाओं और आम परिवार आसानी से घूम-फिर सकते हैं और अपना समय बिता सकते हैं। इसके अलावा यहां दूर-दूर के सैलानी भी नियमित रूप से आते हैं। ऐसे स्थान पर प्रतिरोध आयोजित करना न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि इससे अपने संदेश को दूर-दूर तक पहुंचाने का अवसर भी मिलता है और लोगों को साथ जोड़ने के तरीके भी सामने आते हैं।


नवंबर 2013रू जुलूस की तैयारी; जागोरी, निरंतर, ऐक्शन इंडिया, बर्मीज़ वीमेन्स आॅर्गेनाइजेशंस तथा अन्य महिला संगठनों की सदस्याएं जुलूस की तैयारी कर रही हैं।


नवंबर 2013रू अहिंसा और शांति के अपने रंग-बिरंगें संदेशों के साथ इंडिया गेट पर घेरे में खड़ेी महिलाएं।


नवंबर 2013रू दमकते इंडिया गेट के सामने हमने पुरुषों द्वारा हिंसा के चलते मारी गई तमाम महिलाओं के नाम पर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया।


नवंबर 2013रू बैनर थामे साथी (बाएं से दाएं) - मंजिमा, मालिनी, शालिनी, सीमा, जूही, कल्पना, सचिन। एक हिंसामुक्त विश्व और तमाम औरतों के अधिकारों को सामूहिक स्वर देने का अवसर।


इस तरह के आयोजनों के अलावा हमने 1998 से 1999 के बीच एक-डेढ़ साल तक एम्स के आसपास भी हर महीने वीमेन इन ब्लैक प्रतिरोध कार्यक्रम आयोजित किए। मकसद यह था कि महिला विरोधी हिंसा के मुद्दे को लगातार आम लोगों की नजर में लाया जाए। हर महीने के आखिरी शुक्रवार को हम एम्स के चैराहे पर अपने प्लेकार्ड और पोस्टर लेकर इकट्ठा हो जाती थीं। अगर हमारा समूह बहुत बड़ा नहीं होता था तो भी हम एम्स के चारों कोनों पर अपने बैनर लिए खड़ी रहतीं और वहां से गुजरने वालों से बात करतीं। यह तब की बात है जब एम्स क्लाॅवर-लीफ फ्लाइओवर नहीं बना था। हम पैदल यात्रियों और कारों व दुपहिया वाहनों पर जाते लोगों के साथ अपने संदेश साझा करतीं जो कि रेडलाइट पर कुछ देर के लिए रुकते थे। हम नारे नहीं लगाते थे। हम सड़क पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए प्लेकाड्र्स/तख्तियों के माध्यम से अपनी बात कहते थे। कई मौकों पर पुलिस वालों ने भी हमारे इस प्रतिरोध में मदद दी है।


एम्स प्रतिरोध 1998-99ः शारदा बहन तख्ती लिए खड़ी हुई हैं।


एम्स प्रतिरोध 1998-99ः मासिक प्रतिरोध के लिए एम्स पर जमा जागोरी, एक्शन इंडिया एवं अन्य संगठनों की महिला साथी।


एम्स प्रतिरोध 1998-99ः एम्स के एक होने पर यातायात पुलिस बूथ के पास इकट्ठा महिलाएं।


बीते सालों के दौरान हमने दिल्ली में प्रतिरोध के दायरों को लगातार सिमटते हुए देखा है। आज तो इंडिया गेट पर किसी प्रतिरोध कार्यक्रम की कल्पना करना भी संभव नहीं है। इसके लिए हमें शासन से अनुमति नहीं मिल पाएगी। अब एम्स की इमारत यातायात के लिए एक बड़ा मसला बन गई। वहां से लाल बत्तियां भी हटा दी गई हैं। शहर की बनावट और नक्शा भी तेजी से बदलता जा रहा है - सड़कों की रूपरेखा इस बात को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है कि उन पर केवल तेज रफ्तार ट्रैफिक दौड़े। एक जमाने में हम इंडिया गेट, एम्स और दूसरे प्रमुख सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिरोध किया करते थे मगर आज तमाम प्रतिरोध केवल जंतर-मंतर पर सिमट कर रह गए हैं।