ये कैसा परदेस रे... पाकिस्तान: एक सफरनामा
यह कहानी रुनु चक्रवर्ती द्वारा लिखीत व रचित श्रंखला का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है अन्य दो कहानियाँ भी पढ़ें: अंदर की लड़ाई और महिला समाख्या... कुछ ज़िंदगियाँ, बहुत सी सीख
ये कैसा परदेस रे... पाकिस्तान: एक सफरनामा
10 फरवरी मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण रहा है। कभी खुशी लाया ये दिन तो कभी दुःख का पहाड़ बना। इसी दिन मैं पहली बार एक्शन इंडिया से जुड़ी और मैंने अपने घर से केवल 14 किलोमीटर की दूरी पर रहते मेरे जैसे हाड़-मांस से बने लोगों को नज़दीक से देखा। वो इस देश के नागरिक हैं जिनके घर खजूर के पत्तों के चटाई की दीवार और प्लास्टिक की चादर से बने थे, जिनके बच्चे नालियों के आसपास खेलते थे, नालियों के पास ही चूल्हा था। ज़ोर का झटका इतनी ज़ोर से लगा की आज तक भी उसके सदमे से उबर नही पायी हूँ। ये वो मेहनतकश थे जो रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली आये थे या लाये गये थे। कई इलाकों के लोग विकास के लिए अपने पुरखों की रिहाइश से भगाए गये, उजाड़े गये थे। दिल्ली शहर के बीच कई इलाकों में ये बसे हुए लोग एक बार फिर १९७५ में उजाड़े गये थे क्योंकि दिल्ली को सुंदर बनाना था। ये गंदे लोग एक 'धब्बा' थे शहर पर...।
इन्हें दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली शहर के किनारों में पुनर्वासित किया गया था जहां से रोज़ कमाकर खाने वालों को रोज़ी की तालाश में कम स कम 15-20 किलोमीटर दूर आना पड़ता। अगर काम मिल गया तो सुबह-सुबह निकलते और रात देर से लौटते। कइयों ने तो अपने छोटे बच्चों को सोते हुए में ही देखा था।
वो ज़िन्दगियाँ देख कर अब तक स्कूल और कालेज की किताबों में पढ़ा ये दावा कोरा झूठ साबित हुआ कि “भारत एक विकासशील देश है।" अगले कई सालों तक मैंने अखबार नही पढ़ा...।
फिर एक और 10 फरवरी 1996 को मेरे पिता जी का इंतकाल...
बीच की एक 10 फरवरी (१९८७) अलग रंग लिए हुए थी। वो बसंत पंचमी का दिन था और मेरी पहली विदेश यात्रा। पाकिस्तान जा रहे थे हम सब। साथ में अरुणा रॉय, त्रिपुरारी, लक्ष्मी, कृष्णमूर्ति, निखिल, अमित, सविता, नफीसा और तिलोनिया की कम्युनिकेशन टीम से शंकर, भंवर गोपाल, बाबूलालजी भी थे। इनमें से कई आज हमारे बीच में नहीं हैं। एक इतिहास गढ़ रहे थे हम। बंटवारे के बाद पहली बार इंडिया की कोई टीम पकिस्तान के आवाम के आगे सार्वजनिक प्रस्तुति देने वाली थी। हम लोग लाहौर के एक बड़े ऑडिटोरियम में गोगोल का ‘आला अफसर’ मंचन करने वाले थे।
जैसे ही हवाई अड्डे से हम लाहौर शहर पहुंचे तो झटका लगा... अरे, ये तो बिलकुल हमारे शहर जैसा.... बाज़ार भी लखनऊ और कनाट प्लेस जैसे दिखते हैं। हम तो बसंत पंचमी में बसंत रंग की अहमियत को लगभग भुला ही चुके हैं पर यहाँ तो हर दुकान में बसंती रंग छाया हुआ है। पतंगें छोटी और इन्नी वड्डी-वड्डी, सब बसंती रंग लिए हुए... ज़र्दा, हलवा, मिठाइयां भी बसंती...।
कमला से अक्सर सुना करते थे लाहौर और कराची वालों की मेहमाननवाज़ी के किस्से। तब सोचते थे कि 'चलो कमला का तो मिशन है बहनचारा फैलाना, इसलिए फेंक रही है, बढ़ा-चढ़ा कर सुना रही है।' पर अभी कई अचम्भे हमारे लिए भी बाकी थे....
हमारे ग्रुप में 17 लोग थे। सबने मिलकर तय किया कि हम लाहौर में डीएसए (यानी दैनिक व्यय भत्ता) का पैसा बचाने के लिए होटल में नही खायेंगे बल्कि सामने के मार्किट के एक ढाबे में खाना खाएंगे। बाहर निकले तो टेम्पो ऑटो में गाने हिंदी फिल्म के। ढाबे में खाना खाया पर ढाबे वाला पैसा न ले, “जी आज उस दुकानदार की तरफ से”...। यकीन मानिए हम लाहौर में 5 दिन रहे पर एक दिन भी ढाबे वाले ने हमसे खाने के पैसे नहीं लिए। कोई न कोई दुकानदार हमारी तरफ से खर्चा कर देता। बाहर सिगरट पान वाले भी वो ही, “न जी, पैसे तो आप अपने पास ही रखो। हम आप से कैसे कीमत लें.… आप तो हमारे पड़ोसी हो।” ...और वो प्यारी सी मुस्कुराहट के साथ पान हाथ में थमा देते।
अब ऐसी खातिरदारी भला किसे न भाती...! ऐसे लगता था मानो हम किसी जादू नगरी में आ पहुंचे हों... यकीन के परे.... कि ये सब वाकई हो रहा था हमारे साथ…। अब मान लिया की कमला जो कहती थी वो बात सच थी।
पकिस्तान में वो दौर जम्हूरियत की जीत का था। बेनज़ीर भुट्टो को पाकिस्तान की जनता ने चुनकर भेजा था। चारों ओर जश्न का माहौल था। 13 फरवरी, फैज़ अहमद फैज़ की सालगिरह का दिन। इस दिन लाहौर में फैज़ मेले का आयोजन होता है। हम भी इस धूम में शामिल हुए। वाह क्या नज़ारा था... इत्ते बड़े मैदान के बीचो-बीच वो उंचाई पर बना मंच जहां माइक पर ऐलान किया जा रहा था कि अब कौन से प्रान्त से कौन सी टीम पधार रही है...। वो ढोल बजाते, नाचते-गाते मंच पर आते...। सबको सलाम कर नीचे उतरकर लोगों के इस सागर में मिल जाते। चारों और शोर, रंग बिरंगे कपड़े पहने खुश नाचते-गाते लोग। बांग्लादेश से लालन फकीर भी अपनी टीम के साथ मेले में आये थे फैज़ की सालगिरह सबके साथ मनाने।
अब आया वो दिन जब हमें अपना नाटक आला अफसर पेश करना था। नाटक जिस हॉल में दिखाया जा रहा था वहां इतनी भीड़ थी कि आने-जाने के रास्ते पर, सीढियों पर भी जगह नहीं बची थी। नाटक के अंत में हम सब मिलकर एक मारवाड़ी गीत का मुखड़ा सलाम करते हुए गाते है….. "म्हाका राम सलाम ले ली जो रे, जीवांला तो फेर मिलांगा निका रिजो रे” (उम्मीद है कि मैंने मुखड़ा सही-सही लिखा है)…। ये गीत गाते हुए हम नाचने लगते हैं और पूरा ऑडिटोरियम हमारे साथ नाचने लगता है। स्टेज पर भी पैर रखने की जगह नहीं बची। लोगों में ख़ुशी का ठिकाना न था। कइयों की आँखों में ख़ुशी के आंसू। हमारा भी मन गीला। इतनी ख़ुशी कहां रखें समझ नहीं पा रहे थे। सभी हमें अपने साथ रात के खाने का न्योता दे रहे थे, अफ़गानी विद्यार्थी भी। हमें तो जैसे पंख लग गये हों... तारे ज़मीन पर उतर आये थे उस शाम...।
कुछ दिनों बाद हमें कराची भी जाना था। वहां करामत अली और मरियम की लेबर यूनियन के साथ भी मिलना था। नाटक दिखाना था जिसे त्रिपुरारी, लक्ष्मी और मैंने मिलकर इम्प्रोवाइज़ किया था। ये नाटक देश में चल रही साम्प्रादायिकता और आतंकवाद की पृष्ठभूमी पर आधारित था। हमने इस साम्प्रादायिकता के दानव को अपने अंदर भी खोजने और समझने की कोशिश की थी। कहानी उस नाटक की कुछ यूँ थी ...
‘...एक खन्डहर पर तीन औरतें मिलती हैं। उनमें से दो हमउम्र हैं। उनमें से एक सिख है जिसने १९८४ में दिल्ली में हुए सिख दंगों का तो डटकर सामना किया और दिल्ली में ही टिकी रही पर अंत में बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव से हार कर अपनी नौकरी छोड़ अपनी जड़ें ढूँढने पंजाब लौटने का फैसला लेती है। दूसरी युवती पंजाब के एक भगोड़ा सैनिक की बहन है। उसका भाई अब एक भूमिगत दस्ते में शामिल है और पंजाब की आज़ादी के लिए जुटा है। यह लड़की एक खन्डहर में छिपे अपने भाई को दूध और खाने का सामान देने आती है। तीसरी एक बुज़ुर्ग महिला है जो एक पंजाबी हिन्दू परिवार से है और शादी के बाद पंजाब में ही रही है। पिछले दिनों हुए दंगों में उसके घर के सभी जनों को मार दिया गया और वो अपने दूधमुंहे नाती को लेकर दिल्ली जा रही है। रास्ते में अचानक बम ब्लास्ट के कारण यातायात की आवाजाही बंद हो जाती है। दिल्ली से आने वाली और दिल्ली को जाने वाली बसों में सवार दोनों महिलाएं रात गुज़ारने के लिए पास ही के एक खन्डहर में पनाह लेती हैं। वहीं तीसरी भी अपने भाई को दूध और खाना देने पहुंच जाती है। इन्हीं तीनों महिलाओं के आपसी शक-शुबहे, तनाव, तानाकशी, खींचतान से शुरू होता है ये नाटक।
अपने औरत होने की पहचान के कुछ-कुछ पक्ष इन तीनों को कभी-कभी पास लाते हैं, मगर फिर साम्रदायिक, प्रांतीय पहचानें हावी हो जाती हैं और एक-दूसरे पर इल्ज़ामों का सिलसिला चल पड़ता है। टेढ़े-मेढ़े से इस रिश्ते में उलझी ये तीन औरतें अंत में उस बच्चे को दूध पिलाने के बहाने पास-पास आती हैं। एक नई उम्मीद आँखों में लिए। इस नाटक को देखने के बाद कराची के वो छह फुटिया पठान जब रो दिए और हमसे गले मिले तो हमें सबसे बड़ा अवार्ड मिल गया...।
अगले दिन बारी थी कराची शहर घूमने की। हमने दोपहर का खाना एक ऐसी जगह खाया जो कराची का एक मशहूर रेस्तरां था। वाकई, खाना तो लज़ीज़ था ही और वो कुल्फी...उमम्म आहह्ह्ह...। रेस्तरां के मालिक ने बताया की शकरपुर की कुल्फी बहूत मशहूर है और लाजवाब भी क्योंकि ये खालिस दूध से बनती है... हम्म...खाया मन भाया तो एक-एक और भी मंगवाया...। फिर कराची का हलवा भी खाया, पर थोड़ा क्योंकि पेट में जगह नहीं बची थी... बाक़ी पैक करवा लिया। कुछ ने तो इंडिया के लिए भी पैक करवाया। जब हमारी तरफ से पैसे देने की बारी आयी तो मालिक ने पैसे लेने से इनकार कर दिया। पर उन्होंने जो बात कही उससे हम झेंप गये और आगे हमारी हिम्मत नहीं हुई दुबारा उनसे कुछ कहने की। उन्होंने कहा... "ये तो मेरी ख़ुशी है की आप मेरे छूटे हुए अपनों के मुल्क से हमारे यहाँ पधारे हो...। हमारे भाई-बन्दों के परिवार बम्बई में रहते हैं पर बंटवारे के बाद से आज तक उनसे दुबारा मिलना न हो पाया...। आप लोगों की मेहमाननवाज़ी के ज़रिये मैं सोचकर खुश हूँ मानो मैंने अपनों को ही खिलाया हो... मेरी ये ख़ुशी मुझसे ने छीनिये...।” उनके चेहरे पर पीड़ा और ख़ुशी दोनों थी, उनकी आँखों में शायद एक गीलापन भी...।
खैर, लक्ष्मी और त्रिपुरारी की अम्मा ने बहुत कोशिश की पर कामयाब न हुईं। इसके बाद उन्होंने हम सबके साथ एक ग्रुप फोटो खिंचवाई और हम सबको एक छोटी बस में बिठाकर शहर की सैर भी करवाई। मुझे तो आज भी उनका चेहरा, उनका हल्का बदामी पठानी सूट याद है...। ये भी कोई भूल सकने वाली घटनाएँ हैं!!
अरे रुको-रुको, पाकिस्तान-सफर की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती। कराची से लाहौर हम ट्रेन से लौट रहे थे। ये ट्रेन हमारे राजधानी जैसी एक ओवरनाइट ट्रेन थी। खाना ट्रेन में ही मिला पर हममें से कुछ शाकाहारी थे। हमने खाना नहीं लिया और मज़े से कराची से लाये हुए कीनू और मिठाइयाँ खाने लगे। बाक़ी सब भी मस्त होकर ट्रेन में मिला खाना दम लगा कर खा रहे थे। आते-जाते में हमें फल खाते देख एक वेटर ने पूछा कि हम खाना क्यों नही खा रहे हैं तो त्रिपुरारी की अम्मा ने कह दिया कि हममें से कुछ लोग नॉन-वेज नहीं लेते। उस वेटर का चेहरा ये बात सुनकर परेशान और मायूस दिखा। उन्होंने बड़ी ही नम्रता के साथ हमसे कहा... "अरे तो हमें पहले बताते न आप। मुझे आप आधे घंटे की मोहलत दीजिये, मैं ताज़ी रोटी, दाल और सब्ज़ी बना कर लाता हूँ। आप कैसे बिना खाए सफर करेंगे...।” उनके कहने के अंदाज़ में वो बात थी कि हम मना नहीं कर पाए। और जब 20 मिनट के अंदर ही हमारे सामने ताज़े फुलके, पीली दाल, पनीर की सब्जी सामने दिखी तो हैरानी के साथ-साथ ख़ुश भी हुए और फिर जमकर लुत्फ़ उठाया उस गर्म ताज़े खाने का। मुझे नहीं लगता हमारे अपने देश में ऐसी उम्मीद रख सकते हैं। ये कैसा परदेस रे...!
यह कहानी रुनु चक्रवर्ती द्वारा लिखीत व रचित श्रंखला का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है अन्य दो कहानियाँ भी पढ़ें: अंदर की लड़ाई और महिला समाख्या... कुछ ज़िंदगियाँ, बहुत सी सीख