जागोरी: एक बेहद निजी एहसास
जागोरी: एक बेहद निजी एहसास
मैंने सोचा था, जागोरी से जुड़े मेरे अनुभव के बारे में लिखना सरल होगा क्योंकि कितना कुछ है कहने के लिए; लेकिन जब लिखने बैठी तो समझ में नहीं आया कि कहां से शुरू करूं। यहां एक स्पष्टीकरण देना चाहती हूं कि मैं सिफऱ् जागोरी के काम की बात नहीं करना चाहती क्योंकि वह सब तो किताबों, पोस्टरों और दस्तावेजों के रूप में सबके सामने है। मैं उस जागोरी की यादों को दोहराना चाहती हूं जिसे मैंने जाना लोगों के ज़रिए और कितना कुछ पाया।
अगर जागोरी के दफ़्तर में बैठकर काम करने की बात करूं तो शायद मैंने मुशिकल से तीन साल यहां बिताए लेकिन इसके साथ किसी न किसी रूप में मेरा सम्पर्क तीन दशक का है और दिल का रिश्ता ताजि़न्दगी रहेगा। दिल्ली छूटने के साथ 1993 में जागोरी का दफ़्तर तो छूट गया लेकिन 'सबला' कार्यकारिणी की समिति के नाते मैं अगले दस बारह साल तक जागोरी से जुड़ी रही। अब 'हम सबला' के साथ हूं।
1983 में अपनी पुरानी दोस्त कमला और आभा की पहल पर मैंने महिला संगठनों के लिए विविध प्रकार की सामग्री का अनुवाद अंग्रेज़ी से हिंदी में करना शुरू कर दिया था। अगले कुछ वषोर्ं में बहुत कुछ पढ़ा, लिखा और अनुवाद किया तो महसूस हुआ कि नारीवाद सिफऱ् एक वाद या भारी भरकम सिद्धांत नहीं है, बलिक कहीं न कहीं हर औरत के मन के किसी कोने में छिपी एक आशा है, इच्छा है, आवाज़ है।
सबसे पहले 1989 में मैंने कोटला मुबारकपुर की एक तिमंजि़ली इमारत की बरसात के बड़े घरेलू माहौल में क़दम रखा जो किसी सूरत से दफ़्तर नहीं लगता था। बाहर धूप में चटार्इ पर बैठकर काम कर रही आभा ने मेरा सबसे परिचय कराया। अगर मेरी याददाश्त धोखा नहीं दे रही तो तब जागोरी में आभा के अलावा जुही, विका, सरोजिनी, सरोज और तुलसी से मेरी मुलाक़ात हुर्इ।
सुंदर पदोर्ं, गदिदयों और चटाइयों से सजा छोटा सा घर जिसके एक कमरे में आभा रहती थी और बाहर से आने वाले लोग यदा कदा वहां ठहर जाया करते थे। छोटी सी रसोर्इ जहां हम सभी चाय भी बनाते, बरतन भी साफ़ करते। बड़े कमरे में कुछ मेज़ें और कुर्सियां थीं जहां बैठ कर लिखा-पढ़ी का काम करते। चर्चा करनी हो तो कहीं भी दरी-चटार्इ डालकर ज़मीन पर बैठ जाते। बाल्कनी में होने वाली जागोरी की बैठकें आज भी याद हैं। बड़े कमरे का फ़र्नीचर खिसका कर दिल्ली के अनेक समूहों के साथ होने वाली बैठकों के लिए जगह बना ली जाती, जहां अभियानों, धरनों और मोर्चों की योजनाएं बनतीं, गंभीर मुददों पर बहस भी होती।
जागोरी की जिस बात ने सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा वह था महौल का अपनापन। यहां आपस में गले मिलने का चलन आम था। किसी अजनबी के आते ही कोर्इ न कोर्इ अपना काम छोड़कर उसका स्वागत करती, पानी का गिलास देती और फिर सुकून से उसकी बातें सुनती। यह एक ऐसी जगह थी जहां हर कोर्इ अपने मन की बात कह सकती थी, बग़ैर इस डर के कि कोर्इ क्या सोचेगा। यहां हंसने, रोने, गुस्सा होने या चुपचाप बैठ जाने के लिए जगह थी, संभालने के लिए हमदर्द थे। पहली बार मैंने जाना कि कहीं बाहर से थक कर लौटने पर जब बिन कहे किसी के हाथ आपके कंधे सहलाने लगें तो क्या एहसास होता है। डाक्युमेंटेशन, सम्प्रेषण और संसाधन केंद्र के अलावा जागोरी का उददेश्य और बड़ी ताक़त थी औरतों को एक ऐसी जगह मुहैया कराना जहां वे बेहिचक अपने मन की बात कह सकें और उनकी बात सुनी और समझी जाएगी।
जागोरी से जुड़े सभी लोगों के बीच पदानुक्रम-रहित साझी निर्णय प्रक्रिया का लक्ष्य पाने की कोशिश की जाती थी। कभी-कभी अहम का टकराव भी होता, बहस होती और मामले सुलझा भी लिए जाते। दरअस्ल में यह कलेकिटव का प्रयोगात्मक काल था। उम्मीद की जाती थी कि सभी अपनी-अपनी जि़म्मेदारी र्इमानदारी से निभाएंगी। मुझे याद आता है कि जागोरी की नियमित बैठकों में हम सभी नए-पुराने, युवा और अनुभवी अपनी बात खुलकर करते थे। कभी नारीवाद पर तो कभी ख़ुद हमारे अपने कामों पर भी सवाल उठाए जाते। बिहार के गांवों में सक्रिय हमारी जागोरी की सहकर्मी विका वहां से मलेरिया का संक्रमण लेकर लौटी। वह हालैंड की थी और दिल्ली में एक मित्र के साथ रहती थी। कुछ दिन से बुख़ार आ रहा था। बारी-बारी जागोरी से कुछ लोग जाकर हाल पूछ आते थे। विका को विश्वास था कि वह होम्योपैथिक दवा सेे ठीक हो जाएगी। हमने भी उसकी बात मान ली और अचानक वह चल बसी। हम सबके लिए यह एक बहुत बड़ा सदमा था। मुझे याद है कुछ समय बाद हमारी बैठक में यह सवाल उठाया गया कि यदि विका की जगह हमारा कोर्इ पारिवारिक व्यकित होता तो क्या हम उसे अस्पताल ले जाने और डाक्टर को दिखाने पर ज़ोर नहीं देते। जिस परिवार संस्था की ख़ामियों की हम बात करते हैं, कहीं न कहीं वह हम सबके जीवन में प्राथमिकता पाती है। हमें अपने आपको टटोलना चाहिए। सबने माना कि हमसे ग़लती हुर्इ।
इसी प्रकार की एक अन्य घटना जहां हमने अपने आप पर सवाल उठाया था वह था 1992 में 8 मार्च की रात को एम्स के चौराहे का घेराव। सरोजिनी नगर में नुक्कड़ नाटक करने के बाद मोमबत्तियां और मशालें लेकर शांतिपूर्ण मार्च की योजना थी। जो एम्स के चौराहे पर घेराव में बदल गर्इ। आने-जाने वाली गाडि़यां रोकी गर्इं। उत्साह और जोश से भरी गीत गाती, नारे लगाती औरतों को देखने के लिए भी बहुत से लोग रूक गए। लगभग एक घंटे के इस कार्यक्रम ने जहां हमें अपनी एकता की ताक़त का एहसास दिलाया वहीं आत्म-परीक्षण करने पर हमने पाया कि हमारी वजह से रात को घर लौटने वाले लोगों को परेशानी हुर्इ और शायद अस्पताल के मरीज़ों को भी तक़लीफ़ पहुंची हो। मुझे अच्छा लगा कि हमारी बैठक में एक बेहद सफल, ओजपूर्ण आयोजन के नकारात्मक पक्ष को उठाने की आज़ादी और उस पर बहस करने की जगह थी।
उन दिनों के जागोरी दफ़्तर की मुख्य मेज़ पर एक बड़ी सी डायरी रखी होती थी। शायद वह परंपरा बाद में बंद हो गर्इ। हम सभी रोज़ उसमें कुछ न कुछ लिखते थे। कभी अपनी ज़ाती बातें, कभी काम से जुड़ी, कभी शिकायतें तो कभी तारीफ़ें। कर्इ बार जो बातें हम सीधे नहीं कह पाते थे उन्हें लिख देते और इस तरह बात करने का रास्ता खुल जाता था। मेरे विचार से यह छोटा सा लेकिन एक अहम ज़रिया था अपने आपको टटोलने का और दूसरों तक पहुंचने का।
कहते हैं कि एक दशक में एक पीढ़ी बदल जाती है तो अब तो कर्इ पीढि़यां बदल चुकी हैं। तब कंप्युटर नहीं थे, मोबाइल नहीं थे शायद इतनी कार्य कुशलता और पेशेवर अंदाज़ भी नहीं था। लेकिन बेहद अपनापन था जो मुझे यक़ीन है आज भी जागोरी संस्कृति का हिस्सा है।
एक अत्यंत व्यकितगत अनुभव बांटना चाहूंगी। जब सरोजिनी के पहले बच्चे का जन्म हुआ तो अस्पताल में हम जागोरी की औरते थीं। उसके प्रसव के दौरान मैं उसका हाथ थामे हुए थी। जागोरी ने मुझे जि़ंदगी भर के क़रीबी रिश्ते दिए, आत्मविश्वास दिया, कामकाजी जीवन को दिशा दी और यह एहसास कराया कि संसार में लाखों औरतें मेरी तरह सोचती हैं।
मैं चालीस को पार कर चुकी मध्यमवर्गीय औरत डाक्युमेंटेशन से जुड़ने के इरादे से आर्इ थी, लेखिका थी। ऐकिटविज़्म का मुझे कोर्इ तज़ुर्बा नहीं था। कुछ मित्रों ने, हिंदी लिखने के हुनर ने और नारीवादी सोच ने मुझे यहां पहुंचाया था। दफ़्तर में बैठ कर दस से पांच काम करना होगा, ऐसा मैंने सोचा था, लेकिन जागोरी के ऊर्जापूर्ण माहौल ने कब मुझे अपने रंग में रंग लिया, पता ही नहीं चला। रात भर जागोरी में बैठकर पोस्टर, बैनर बनाना, नारे लिखना, हाथ में गोंद और कैंची लेकर आधी रात गए चांदनी चौक की गलियों में पोस्टर चिपकाना; सड़क, बाज़ार में नुक्कड़ नाटक करना, इंडिया गेट से लाल किले तक गला फाड़ कर गाते और नारे लगाते मार्च करना, दक्षिणपुरी की बस्ती में शांति के घर की छत पर रात गुज़ारना जागोरी की मेरी याद में आज भी जि़ंदा है।
जागोरी का एक अहम हस्तक्षेप जो मुझे याद आता है, वह है औरतों के खिलाफ़ हिंसा हमारे काम और सरोकार का मुख्य मुददा रहा है। सन 1992 में भटेरी गांव की साथिन भंवरी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में जागोरी सर्वाधिक सक्रिय समूहों में से एक थी। राजस्थान के इस मामले को लोगों और राजस्थान सरकार की नज़र में लाने और तुरंत कार्यवाही के लिए दबाव डालने के उददेश्य से दिल्ली की अनेक महिला संस्थाओं ने जयपुर जाकर शहर में मार्च करने, पर्चे बांटने और मुख्य मंत्री को ज्ञापन देने का फैसला किया। दिल्ली से बस भर कर औरतें मुंह अंधेरे रवाना हुर्इं। छह घंटे का सफ़र तय करके हमने जयपुर शहर की सड़कों पर नारे लगाए, पर्चे बांटे; जिसका समापन सचिवालय पर हुआ। राजस्थान के विभिन्न समूहों की औरतें और सैंकड़ों साथिनें भी हमारे साथ थीं। पुलिस ने आगे बढ़ने से रोका, बैरीकेड लगाए, औरतें उन पर चढ़ गर्इं, पुलिस के साथ झड़प और धक्का-मुक्की हुर्इ। अंत में कुछ औरतों का समूह मुख्यमंत्री से मिल कर ज्ञापन दे पाया। यहां एक बात का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहंूगी कि इस पूरे सफ़र, मार्च और धरने के दौरान जागोरी की सरोजिनी अपने छोटे से बेटे को पीठ पर बांध कर हम सबके साथ थी। ये छोटी-छोटी यादें जागोरी के अनुभवों की आत्मा हैं।
कमला भसीन, शारदा जैन और जागोरी के सहयोग से शायद सन 1987 से 'सबला पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था। यह शहरी बसितयों और हिंदी भाषी प्रदेशों की नव-साक्षर लड़कियों व औरतों के सशकितकरण की दिशा में एक बड़ी कारगर कोशिश थी जो सफलतापूर्व आज तक 'हम सबला के रूप में जारी है। जागोरी की सदस्य होने तथा हिंदी लेखन के अनुभव के चलते मुझे 'सबला के सम्पादक समूह से जुड़ने को कहा गया।
मैंने सबला के लिए नियमित लेखन, रिपोर्टिंग का काम 1991 से शुरू किया और अगले लगभग बारह साल तक मैं सबला से जुड़ी रही। जागोरी के सभी अहम मुददों से जुड़े लेख व कहानियां लिखीं। हर अंक के लिए कम से कम दो-तीन रचनाएं लिखती रही। इस पत्रिका की पहुंच और लोकप्रियता का एक अनोखा अनुभव मुझे तब हुआ जब अहमदाबाद में रहते हुए मुझे एक बार तटीय नगर ओरवा जाने को मौका मिला। वहां भारतीय नौसेना के कुछ परिवारों से मिलना हुआ और मेरा नाम जान कर वे कहने लगीं ''आप सबला से जुड़ी हैं ना? हम सबको 'सबला बहुत पसंद है।
मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी गंभीर मुददों और सिद्धांतों को सरलतम रूप में लिखना ताकि नवसाक्षर तथा अल्प-साक्षर औरतें भी उसे समझ पाएं। बोलचाल के शब्द, छोटे-छोटे वाक्य और आम लोगों की भाषा का इस्तेमाल करते हुए अपनी बात कह पाने का हुनर मैंने सबला के माध्यम से सीखा जो पिछलेे तीस वषोर्ं से मेरे अनुवाद कार्य में सहायक है। एक रोचक बात यह भी है कि सबला के अनेक पुरुष पाठक भी थे। औरतों के जीवन से जुड़े लगभग सभी विषयों व नारीवाद की सैद्धानितकता के अलावा सक्रिय अभियानों, संघषोर्ं, कार्यक्रमों की जानकारी सरल और रोचक ढंग से देने की कोशिश की जाती थी। 'सबला व 'हम सबला यकीनन जागोरी के तीस सालों के सफ़र में मील का पत्थर हैं।
जैसा कि मैंने शुरूआत में कहा था कि मेरा उददेश्य अपनी या जागोरी की उपलबिधयों का ब्योरा देना नहीं है, उनके पीछे के अहसासों को टटोलना है। मेरी यादों के खज़ाने से उन कुछ छोटी-छोटी यादों को दोहराना है जो कहीं दर्ज नहीं हैं।
जागोरी में बिताए तीन साल या उससे जुड़ाव के तीस साल मेरे वजूद का अहम हिस्सा हैं।