महिला समाख्या... कुछ ज़िंदगियाँ, बहुत सी सीख
यह कहानी रुनु चक्रवर्ती द्वारा लिखीत व रचित श्रंखला का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है अन्य दो कहानियाँ भी पढ़ें: अंदर की लड़ाई और ये कैसा परदेस रे... पाकिस्तान: एक सफरनामा
महिला समाख्या... कुछ ज़िंदगियाँ, बहुत सी सीख
बात १९८६ की होगी। मैं थक रही थी। शहर में चेतना आधारित, संगठनात्मक काम करने की मेरी ताकत सीमा तक पहुंच रही थी। जो किया जाना चाहिए उसकी ठीक समझ बन नहीं रही थी। दिशा खो चुकी थी। महिला आन्दोलन का नशा उतरने पर था। जिन महिला समूहों से जुड़ी थी उनमें भी फूट पड़ रही थी। पर मैं थमना नहीं चाहती थी। नयी ज़मीन, नया आसमान खोज रही थी। ठीक उसी समय आभा ने सेंटर फॉर सोशल वेलफेयर बोर्ड (CSWB) द्वारा प्रायोजित प्रशिक्षण में मुझे अपने साथ जोड़ा। 7 दिनों की ट्रेनिंग में हिन्दीभाषी ग्रामीण क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं में कार्यरत महिलाएं शामिल होती थीं। शुक्रिया अदा करके आभा के मुझ पर किये गये भरोसे और उसके बेशुमार स्नेह और दोस्ती को छोटा करने की मैं जुर्रत नहीं कर सकती, पर हाँ, खोटे सिक्के को जैसे फिर से बाज़ार में कीमत मिल गई थी। ज़ंग लगी सुईं फिर से चमक उठी थी।
कुछ सालों तक हम दोनों कुछ और साथियों के साथ ये ट्रेनिंग करते रहे। एक नयी ऊर्जा मिलती इन महिलाओं से उनके जीवन और कामों में चल रहे कठिन संघर्षों को सुन कर। इन प्रशिक्षणों में जो रिश्ते बने उनमें से कई मित्रताएं आज भी ज़िंदा हैं। जहां तक सुनने में आया, सरकारी विभाग को भी ये ट्रेनिंग पसंद आयी। सुहासिनी मुले ओर तपन बोस ने सरकार की तरफ से इन प्रशिक्षणों पर डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनायी थी जिसका हम दोनों ने विरोध भी किया पर ये फैसला लिया जा चुका था और उसको बदलना मुश्किल था। यह फिल्म (जो मैंने आज तक नहीं देखी) देखने के बाद यह प्रशिक्षण सरकारी विभाग की नज़र में चढ़ गयी। १९८८ में शिक्षा विभाग के तत्कालीन मुख्य सचिव स्वर्गीय अनिल बोर्दिया जी ने मुझे और आभा को एक चुनौती दी... "जो ट्रेनिंग में करती हो उसे ज़मीन पर करके दिखाओ तो जानें।”
हमने भी जुनून में आकर चुनौती को स्वीकारने की हिमाकत दिखा ही दी। पायलट प्रोजेक्ट के रूप में हमें सेवापुरी के रामेश्वर क्षेत्र के २५ गाँव दिए गये जहां महिला समाख्या को कागज़ से उतार कर ज़मीन पर लाना था। हम जुटे गये। गाँव से मुलाक़ात तब तक फिल्मों और कहानियों के ज़रिये ही हुई थी।
सघन क्षेत्र विकास समिति, सेवापुरी, बनारस के माध्यम से महिला समाख्या कार्यक्रम को जब कागज़ से ज़मीन पर उतारने की कोशिश शुरू हुई तो एक नई ऊर्जा, एक नया मकसद मिला। महिला आन्दोलन के कई मित्रों ने हमें दगाबाज़ भी कहा क्योंकि हम सरकार के साथ काम कर रही थीं। काश वो भी हमारे साथ होते तो आज इतनी सम्भावनाओं को समेटे इस कार्यक्रम और इन सब सशक्त महिलाओं को भी मज़बूती मिलती, दिशा मिलती और मुख्यधारा के शहर आधारित चर्चित महिला आन्दोलन को भी पुख्ता ज़मीन और फैलाव मिलता। ट्रेनिंग इस काम का न तो शुरुआत थी और न ही इसका अंत थी - मगर प्रक्रिया का एक प्रमुख हिस्सा ज़रूर थी।
यहाँ एक ऐसा जमघट होता जहां भावनाएं सर चढ़ कर बोलती थीं, दिल की धड़कनें तेज़ हो जातीं, दिमाग़ सात घोड़ों के रथ पर सवार हो सपनों की खूबसूरत चादर बुनने लगता। चुप्पी को आवाज़ मिलती, अकेली को मिलता साथ और भरोसा। हम सब सवाल करतीं उन परम्पराओं पर, रीत-रिवाजों पर, उन रिश्तों पर, उन संस्थाओं पर जिन्हें अभी तक हम अपना मानते आये थे। शुरुआत के दिनों का यूँ तो हर दिन एक ख़ास अनुभव था, हर सखी खास थी, पर यहाँ उनमें से एक का ज़िक्र आपसे ज़रूर करना चाहूंगी...।
माया... एक पहाड़ सी ज़िन्दगी
“हमरे जीवन की बन गयी कहानी कोंहरवा के चकिया जैसे...
जिसमें लागी नाहीं कोई निसानी परेता चाहे जितना घुमे...
खाना सबको खिला के खाने बैठी तो खाना भर पेट न मिले...”
यह गीत सेवापुरी में महिला समाख्या कार्यक्रम, उत्तर प्रदेश के तहत आयोजित प्रथम 15 दिवसीय आवासीय प्रशिक्षण में माया ने लिखा था।
माया 5 फुट 4 इंच लम्बी, हट्टी-कट्टी शादीशुदा महिला थी। पांचवी कक्षा तक पढ़ी-लिखी, आंगनवाडी कार्यकर्ता जो महिला समाख्या में सखी बनने के लिए गोद में सबसे छोटा आठवां बच्चा लिए प्रशिक्षण में आई थी। तब ये प्रशिक्षण 15 दिनों के आवासीय हुआ करते थे। माया अपने व्यक्तित्व से सभी को प्रभावित करती थी। प्रशिक्षण के दौरान शिवरात्री का त्यौहार आया तो सभी सहभागियों ने व्रत रखा। सिवाए मेरे और आभा के। सुहागिनें तो बढ़-चढ़ कर तैयारी में लगी हुई थीं। पिछली रात को हाथों में मेहंदी लगाया था। मेहँदी लगाते हुए गीत गाना, हंसी-ठट्टा.., खिलखिलाना, ठहाके, यौनिकता पर खुलकर बात करती सारी सखियाँ कोई और ही लग रही थीं। बस शामिल नहीं हुईं तो वो जिनके पति ज़िंदा नहीं थे और माया... माया के पति ज़िंदा थे।
अगले दिन सुबह मैंने और आभा ने ख़ास तौर पर चाची (जो मेस में हम सबके लिए खाना बनाती थी) से अपने लिए परांवठे बनवाये और धूप में बाहर बैठकर सबको दिखा-दिखाकर खाने लगे। मगर मजाल है जो किसी का भी मन मचला हो! सब नहा-धोकर बाल खोलकर पूजा की तैयारी में लगी रहीं। माया हमसे थोडी दूर बैठी सबसे नज़रें चुराती हुई अपने छोटे बच्चे को अपनी छाती का दूध पिलाते हुए नाश्ता कर रही थी। अपने चेहरे की उदासी को ढकने की कोशिश कर रही थी।
सबसे अलग-थलग बैठी माया से हमने पूछा, "तुमने क्यों व्रत नही रखा शिवरात्री का?” माया ने एक भावविहीन चेहरे से ठंडा सा जवाब दिया - "बस यूँ ही... शादी से पहले रखती थी, शादी के बाद शिव मिल गया, व्रत छोड़ दिया..।” उसके लहजे में एक कड़वाहट थी जो हम दोनों तक तुरंत पहुंची...। उसके आगे खाना न खाया गया...। मैंने और आभा ने एक-दूसरे की ओर देखा और माया के जीवन की गहराइयों को नापने की कोशिश में जुट गये। एक चुभती सी चुप्पी छा गयी हमारे बीच जो भेजे में शोर कर रही थी।
यह कहानी रुनु चक्रवर्ती द्वारा लिखीत व रचित श्रंखला का हिस्सा है। आपसे अनुरोध है अन्य दो कहानियाँ भी पढ़ें: अंदर की लड़ाई और ये कैसा परदेस रे... पाकिस्तान: एक सफरनामा